जब राग बोले और सुर मुस्कराए: पं. उल्हास कशालकर ने ‘अनहद’ को किया आलोकित
राजस्थान इंटरनेशनल सेंटर में हुए कर्यक्रम में हुए स्वरों के कल कल नाद ने संगीत रसीकों को किया सराबोर
Ananya soch
अनन्य सोच। ‘अनहद’ की सुरमयी संध्या उस क्षण अनंत हो उठी जब पं. उल्हास कशालकर के स्वरों ने रागों में प्राण फूँक दिए. उनके गायन में ग्वालियर की गहराई, जयपुर की विस्तारशीलता और आगरा की दृढ़ता एक साथ झिलमिलाई. स्वर कभी ध्यान बनकर ठहरते, कभी भावना बनकर बहते और श्रोताओं को ऐसी आत्मिक अनुभूति देते चले गए जैसे संगीत स्वयं साधना बन गया हो.
स्पिकमैके और राजस्थान पर्यटन विभाग, राजस्थान सरकार के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार शाम राजस्थान इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित “अनहद” श्रृंखला की तीसरी कड़ी में पंडित कशालकर ने अपनी विलक्षण प्रस्तुति से रागों की रस-धारा प्रवाहित कर दी. सायंकालीन और रात्रि के प्रथम प्रहर के रागों में उन्होंने जिस सौंदर्य का संचार किया, उसने वातावरण को माधुर्य और ध्यानमग्नता से भर दिया.
कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने राग ललिता गौरी से की यह पूर्वी थाट से संबंधित एक विशिष्ट हिंदुस्तानी शास्त्रीय राग है, जो राग ललित और गौरी का संयोजन है. इसमें प्राकृतिक और तीव्र म (मध्यम) के साथ-साथ पा (पंचम) का प्रयोग होता है. इस राग में पंडित कशालकर ने जयपुर घराने की बंदिश “प्रीतम सैयाँ दरस दिखा” को तीनताल में निबद्ध कर प्रस्तुत किया, जिसमें राग की कोमलता और आलाप की गहराई ने श्रोताओं को मोह लिया.
इसके बाद उन्होंने रात्रि के प्रथम प्रहर में गाए-बजाए जाने वाले कल्याण थाट के राग भोपाली में बंदिश “जब से तुम्हीं संग लागे” को तीनताल में निबद्ध कर प्रस्तुत किया. इस प्रस्तुति में उनकी तानकारी की दृढ़ता और स्वर की पारदर्शिता ने राग के भाव को निखार दिया.
पंडित कशालकर के गायन में परंपरा की गरिमा और नवीनता की कोमल आभा एक साथ झलकी. रागों के विस्तार में जहाँ तान की दृढ़ता थी, वहीं भाव की सूक्ष्मता और स्वर की कोमलता का अद्भुत संगम दिखाई दिया. ग्वालियर घराने की शास्त्रीयता, जयपुर की जटिल रचनात्मकता और आगरा की ऊर्जा उनके स्वरों में सहजता से घुली रही.
इस अवसर पर तबले पर पंडित विनोद लेले और हारमोनियम पर विनय मिश्रा ने संगत कर प्रस्तुति को और सजीव बना दिया.
स्पिकमैके की प्रवक्ता अनु चंडोक और हिमानी खींची ने बताया कि इस संध्या में मूलतः मुंबई की प्रख्यात गायिका डॉ. अश्विनी भिड़े-देशपांडे की प्रस्तुति निर्धारित थी, किंतु पारिवारिक आकस्मिक स्थिति के कारण वे सम्मिलित नहीं हो सकीं.
पंडित कशालकर की यह प्रस्तुति “अनहद” के नाम को सार्थक करती हुई श्रोताओं के लिए एक अविस्मरणीय संगीतमयी अनुभूति बन गई जहाँ हर राग ने अपनी आत्मा से संवाद किया और हर स्वर ने मौन को संगीत में बदल दिया.